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    Home»‌‌‌धर्म और त्यौहार»रक्षाबंधन व्रत कथा rakshaabandhan vrat katha विधी व महत्व
    ‌‌‌धर्म और त्यौहार

    रक्षाबंधन व्रत कथा rakshaabandhan vrat katha विधी व महत्व

    arif khanBy arif khanJuly 24, 2020Updated:August 2, 2020No Comments11 Mins Read
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    इस के अंदर हम रक्षाबंधन व्रत कथा rakshaabandhan vrat katha ‌‌‌विधी व महत्व के बारे मे जानेगे ।

     हिन्दू व जैन त्योहार मे रक्षाबंधन आता है  । रक्षाबंधन भाई व बहन के प्रेम को दर्शाता है । जिसमे भाई अपनी बहन की रक्षा करने का वचन देता है । श्रावण मास की पूर्णिमा को रक्षाबंधन का त्योहार आता है । इस दिन ही व्रत किया जाता है । इसमें बहन अपने भाई कि कलाई पर रक्षासूत्र ‌‌‌का धागा ‌‌‌बाधती है ।

    रक्षासूत्र सोने चादी या फिर किसी कपडे के धागे का बना होता है । रक्षाबंधन के दिन बहन अपने भाई की तरकी के लिए प्राथना करती है । और भाई अपनी बहन की रक्षा करने का वचन देता है । रक्षाबंधन वेसे तो अपने भाई को बांधी जाती है पर आज कल अपने से बडे को कन्या रक्षासूत्र बांधती है ।

    साथ ‌‌‌ही आज कल तो किसी नेता को भी रक्षासूत्र बांधे जाने लगा है । भाई अपनी बहन को कुछ उपहार देता है । रक्षाबंधन के दिन अब ‌‌‌पेडो की रक्षा के लिए रक्षासूत्र बांधे जाने लगा है । जिससे वह पेड की रक्षा करने के लिए प्रण करते है ।

    रक्षाबंधन व्रत कथा rakshaabandhan vrat katha विधी व महत्व

    Table of Contents

    • रक्षाबंधन व्रत कथा
    • रक्षाबंधन व्रत कथा 2
    • ‌‌‌रक्षाबंधन व्रत कथा की विधी
    • ‌‌‌महत्व
    • ‌‌‌रक्षाबंधन के बारे मे
    • ‌‌‌माता लक्ष्मी ने राजा बलि को बाधी राखी
    • मुगल बादशाह हुमायूँ को भेजी राखी
    • पुरूवास को बाधी राखी

    रक्षाबंधन व्रत कथा

    एक बार की बात है सभी पाण्डव कृष्ण जी के साथ बेठे थे और उनसे प्रवचन सुन रहे थे । तब युधिष्ठिर ने श्री कृष्ण से कहा कि हे देव आप तो ज्ञानी हो आप मुझे रक्षाबंधन की ऐसी कथा सुनाए जिससे मनुष्य के दुखो को दुर किया जा सकता है ।

    ‌‌‌कृष्ण जी ने युधिष्ठिर की बात कों सुनकर कहा की हा मै तुम्हे आज एसी कथा के बारे मे बताउगा जिससे मनुष्य के दुख दुर हो जाते है । कृष्ण जी ने कहा की हे युधिष्ठिर एक बार कि बात है सभी देव अपने कार्य मे मगन थे अचानक ही दैत्यों तथा सुरों में युद्ध छिड़ गया था ।

    जिससे बहुत से जीव नष्ट हो गए यहा तक ‌‌‌कि इंद्र भी उनसे हार गए थे यह युद्ध लगातार बारह माह तक चला था । अपनी हार को देखकर इंद्र ने सोचा यहा से चलने मे ही हमारी भलाई है । इंद्र ने अपने सभी देवताओ के साथ अमरावती कि ओर रवाना हो गए ।

    दैत्यराज विजय हो गया था और तिनो लोको पर राज करने लगा साथ ही पृथ्वी पर यह घोषणा कर दि की इंद्र की ‌‌‌पूजा करनी छोड दो और मेरी पूजा करो मेरा यज्ञ करो । दैत्यराज की जो पूजा करेगा यज्ञ करेगा वह जीवित रह सकता है वरना सभी मर जाएगे । इससे धर्म का नाश होने लगा था ।

    इंद्र भी कुछ नही कर रहे थे । लोग मर रहे थे कुछ लोग दैत्यराज की पूजा करने लगे थे तो कुछ न ‌‌‌ तो देवताओ की पूजा करते थे न ही दैत्यराज की । ‌‌‌इससे दवो का बल और कम होने लागा था । तब इंद्र ने अपने गुरु वृहस्पति के पास जाने का निर्णय लिया ।

    इंद्र अपने गुरु वृहस्पति के पास जाकर रोने लगे और कहा कि हे गुरुदेव आप ही बताए मे क्या करु जिससे इन सभी सकटो से निकल जाउ । इंद्र ने कहा की हे गुरुदेव आप ही बताए मै न तो मर सकता हूं और नही युद्ध ‌‌‌कर सकता हूं ।

    अपने शिष्य कि बाता को सुनकर वृहस्पति ने इंद्र की श्रावण पूर्णिमा को प्रातःकाल निम्न मंत्र से रक्षा विधान कराया था जो यह है

    ‘येन बद्धो बलिर्राजा दानवेन्द्रो महाबलः।

    तेन त्वामभिवध्नामि रक्षे मा चल मा चलः।’

    इंद्राणी ने श्रावणी पूर्णिमा को इंद्र की दाहीनी कलाई पर एक रक्षा सूत्र ‌‌‌बांधा था । जिसके बाद इंद्र युद्ध मे लड़ने के लिए चला गया । वह युद्ध करता रहा और अंत मे इंद्र की विजय हो गई और देत्य वहा से भाग गए थे । इसी कथा को सही मायने मे रक्षासूत्र के मतलब को बताया गया है । जिसके प्रभाव से उसे शक्ति मिल जाती है । जिससे वह हर मुसकिल को पार कर सकता है ।

    रक्षाबंधन व्रत कथा 2

    एक बार कि बात है भगवान कृष्ण द्रोपती दोनो कही जा रहे थे । जाते समय वे दोनो बाते कर रहे थे इस कारण कृष्ण जी को नही पता था की हमारे आस पास क्या हो रहा है । इतने मे भगवान कृष्ण जी के होथ मे लग जाती है जिससे ‌‌‌उनका रक्त बहने लग जाता है । यह देख कर द्रोपती ने अपनी साढी फाड कर कृष्ण ‌‌‌ जी की कलाई पर बाध दी ।

    जिससे कृष्ण जी ने रक्षासूत्र का नाम दे दिया और कहा की बहन जब भी तुम्हे मेरी जरुरत हो अपने मन से बुलाना ‌‌‌मै तुम्हारे दुख अवश्य ही दुर कर दुगा । कुछ समय बित गया था तभी पाढवो कोरवो से खेल मे हार गये थे पाडव खेल मे सब कुछ हार गए थे ।

    अंत मे वे द्रोपती को दाव पर लगा देते ‌‌‌‌‌‌है जब पाडव दोपती को भी हार गए तो द्रौपदी की चीरहरण होने लगा था पर पाडव कुछ नी कर रहे थे । द्रोपती ने अपने मन मे कृष्ण का नाम जपना सुरु कर दिया और अपनी आखो को बंद कर लि थी ।

    कृष्ण ने द्रोपती को अपनी बहन माना था और उसकी मदद करने के लिए वे उसकी साढी को बडाने लग गए और द्रोपती की मदद करी । ‌‌‌कृष्ण‌‌‌ की कलाई पर द्रोपती ने रक्षासूत्र बाधा था इस कहानी से भी रक्षासूत्र के बारे मे पता लगता है कि रक्षासूत्र क्या है । रक्षाबंधन व्रत ही द्रोपती की मदद कर सका था ।

    ‌‌‌रक्षाबंधन व्रत कथा की विधी

    • जब रक्षा बंधन हो उस दिन सुबह जल्दी उठकर भाई व बहन दोनो ही स्नान कर लेते है ।
    • उसके बाद मे बहन एक थाल तयार करती है । उस थाल मे  रोली, अक्षत, कुमकुम एवं दीप ‌‌‌जलाकर रख ‌‌‌देती है ।
    • उसके बाद मे बहन अपने भाई की पूजा करती है व अपने भाई को तिलक लगाकर ‌‌‌उसके हाथ की कलाइ पर राखी बांध देती है ।
    • ‌‌‌राखी बांध देने के बाद मे भाई ‌‌‌को मिठाई खिलाती है ।
    • उसका भाई अपनी बहन को रक्षा करने का वचन देता है ।और साथ ही उसे कुछ उपहार देता है जो उसे प्रिय हो ।
    • बहन अपने भाई की कलाई पर राखी बांधते समय उसकी लम्बी ‌‌‌उमर की कामना करती है।
    • उसके बाद भाई अपनी बहनो को मिठाई खिलाता है।
    • ‌‌‌भाई अपनी बहन को हर मुश्किल मे साथ देने का वचन देता है ।
    ‌‌‌रक्षाबंधन व्रत कथा की विधी

    ‌‌‌महत्व

    इस व्रत को करकर बहन अपने भाई की सलामती कि दुआ मागती हैं । इस व्रत से बहन व भाई दोनो मे ही प्रेम बना रहता है । यहा तक की इस व्रत को करने से बहन व भाई के बिच मे जो भी कष्ट आते है उन्हें वे दोनो ही साथ निपटाते है । यह व्रत करने से सभी कष्ट दुर हो जाते है ।

    रक्षाबंधन के दिन भाई अपनी ‌‌‌बहन की रक्षा करने का वचन देता है । जब जरुरत होती है तो भाई अपनी बहन के लिए अपनी जान भी गिरवी रख देता है । इससे परिवार मे भी मतभेद नही होता है । ‌‌‌दोनो को एक समान समझा जाता हैं । इस व्रत के दिन दोनो के मध्य जो भी झगडे हो ‌‌‌ वे नष्ट कर कर वे एक साथ हो जाते है । और रक्षाबंधन का त्योहार मनातें है ।

    ‌‌‌रक्षाबंधन के बारे मे

    इस दिन बहन अपने भाई की कलाई पर राखी बांधती है पर कुछ लोग पेड पोधो को भी राखी बाधने लगे है । जिससे वह पेड की सुरक्षा करने के लिए तयार हो जाते है । रखी ‌‌‌जितने रगो कि हो अच्छा माना जाता है । राखी के रंगबिरंगे धागे भाई-बहन के बंधन को मजबुत बना देते है ।

    ‌‌‌इस दिन भाई बहन दोनो सुख दुख मे एक साथ रहने का एक दुसरे को वचन देते है । इसके अतिरिक्त भगवान भी एक दुसरे को रखी बाधते है । भारत मे यहा तक की बडी औरते अपने भाई व बच्चो को रखी बांधती है । एक बार भगवान विष्णु को माता सति ने रक्षासूत्र बाधकर अपना भाई माना था ।

    ‌‌‌और अगले जन्म मे भी माता पार्वती ने विष्णु को फिर से रक्षासूत्र बांधा था । इसके अलावा गुरु अपने शिष्य को रक्षासूत्र बाधता है व शिष्य गुरु को । जब राजा युद्ध करने के लिए जाता था तो उन्हे भी उनकी बहन रक्षासूत्र बांधा करती थी । जिससे उनके प्राणो की रक्षा की जा सके ।

    ‌‌‌यहा तक कि नेताओ को भी राखी बाधे जाने लगी है । इस दिन तरह तरह के पकवान बनाए जाते है। विवाह हो जाने के बाद भाई अपनी बहन के पास जाता है या फिर बहन अपने भाई के पास जाती है और इस तरह से बहन भाई को रक्षासूत्र बांधती  है ।

    ‌‌‌माता लक्ष्मी ने राजा बलि को बाधी राखी

    स्कन्ध पुराण मे एक कथा के बारे मे ‌‌‌जानकारी मिलती है की दानवेन्द्र बलि नाम का एक राजा था । जो दानवन था वह 100 यज्ञ कर के स्वर्ग को छीनने के लिए स्वर्ग पर युद्ध कर दिया था । जिससे इंद्र घबराकर भगवान विष्णु के पास साहयता के लिए चला जाता है ।

    भगवान विष्णु ने इंद्र से कहा की तुम चिन्ता मत करो ‌‌‌मै इस बारे मे कुछ करता हूं । भगवान विष्णु ने ब्राह्मण का रुप धारण किया और राजा बलि  के पास गया । राजा बलि  से ब्राह्मण ने तिन पैर भूमि मागी तो राजा ने सोचा की यह तो तीन पैर ही भूमि माग रहा है यह कैसा मुर्ख है ।

    राजा बलि  ने उसे तिन पैर भूमि देने का वादा किया और कहा की जहा चाहो वहा पर तुम तिन पेर भुमि ‌‌‌नाप लो  । भगवान विष्णु ने तीन पग में सारा आकाश पाताल और धरती नाम ली थी । जिसे देख कर राजा बलि  घबरा गया और वहा से रसातल मे चला गया था । इस तरह से इस त्योहार बलेव नाम से जाना जाने लगा था ।

    ‌‌‌माता लक्ष्मी ने राजा बलि को बाधी राखी

    ‌‌‌साथ ही यह भी कहा जाता है की एक बार राजा बलि रसताल मे तप करने के लिए जुट जाता है और भगवान विष्णु से वरदान के रुप मे अपने सामने रहने का वचन माग लिया था । विष्णु जी ने यह वचन दे दिया ।

    वे रात दिन बस राजा बलि के सामने रहने लग गए थे । विष्णु जी ‌‌‌को ‌‌‌वहा पर रहने के कारण माता लक्ष्मी बहुत ही चिंतित होने लग गई थी । तभी वहा पर नारद जी आए और कहा की माता आप यहा पर किस विषय के बारे मे सोच रही हो । तब माता ने कहा की भगवान विष्णु यहा पर नही है मै यही सोच रही हू की उन्हे यहा पर किस तरह से लाया जाए ।

    तब नादजी ने कहा की माता ‌‌‌मै एक उपाय बताता ‌‌‌हूं । नादजी की बातो को सुन कर लक्ष्मी माता राजा बलि  के पास जाकर उसे रक्षासूत्र बांधा था । जिससे राजा ‌‌‌बलि ने भगवान विष्णु को वहा से जाने के लिए कह दिया था बताया जाता है कि उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी । ‌‌‌इस तरह से यह कहा जाता है कि उसी दिन से रक्षाबंधन का त्योहार मनाया जाने लगा था ।

    मुगल बादशाह हुमायूँ को भेजी राखी

    कर्मावती नाम की मेवाड की रानी थी । बहादुरशाह नाम के राजा ने मेवाड पर हमला बोले की सुचना कर्मावती ‌‌‌को प्राप्त होई थी । रानी कर्मावती लडने मे समर्थन नही थी वह अपनी साहयता के लिए मुगल बादशाह हुमायूँ को एक राखी भेजी थी और उनके राज्य कि मदद करने के लिए ‌‌‌याचना कि थी । मुगल बादशाह हुमायूँ एक मुस्लमान था वह कर्मावती की राखी की ‌‌‌लाज रखते हुए रानी कि और से बहादुरशाह लड कर रानी कर्मावती की मदद कि थी ।

    मुगल बादशाह हुमायूँ को भेजी राखी

    पुरूवास को बाधी राखी

    इस तरह से एक और कथा है जिसमे राजा सिकन्दर एक बार युद्ध करने के लिए जा रहा था जिससे उसकी पत्नी ने अपने पति के प्राण कि रक्षा करने के लिए सिकन्दर के जो विरुद्ध ‌‌‌लड रहा था यानि पुरूवास के पास जाती है । जब  पुरूवास ने देखा की मेरे शत्रु की पत्नी आ रही है तो वह उससे शांति के साथ ‌‌‌पूछने लगा कि आप यहा पर किस लिए आई हो । उसके जबाब मे रानी ने कहा कि आपका दाहीना हाथ दिजिए राजा ने दाहीना हाथ उसकी और बढाया तो रानी ने उसके हाथ पर राखी बाधी । राखी को देखकर पुरूवास  ‌ने कहा कि यह क्या है ।

    तब रानी ने कहा कि अब आप मेरे भाई बन गए हो और आप मुझे ऐसा वचन दे कि आप युद्ध मे मेरे पति को मारोगे नही । राजा  पुरूवास ने रानी को वचन दिया और कहा कि मै आपके पति को नही मारुगा । कुछ समय के बाद युद्ध सुरु हो गया था । रानी बहुत व्याकुल थी की वहा पर क्या हो रहा होगा। ‌‌‌पुरूवास युद्ध मे जितता जा रहा था और अंत मे वही जिता था । रानी के द्वारा बाधी गई राखी को देखकर राजा पुरूवास ने राजा सिकन्दर को जिवन दान दिया था । इस तरह से रक्षाबंधन व्रत का बहुत महत्व है । इससे रक्षासूत्र के तोर पर राजा भी मनाते थे ।

    arif khan
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